September 26, 2011

एक दिन की मौत

मौत तो मौत होती है साहब, क्या एक पल और क्या सौ दिन! लेकिन फिर भी, यदि मौका मिले सिर्फ एक दिन के लिए मरने का तो? क्या क्या हो सकता है? किस किस को फर्क पड़ेगा? दुनिया किसी के बिना नहीं रूकती है, एक कड़वा सत्य, और मेरे बिना भी नहीं रूकेगी, The show must go on! इसका ज्ञान होने के बावजूद ऐसे विचार? एक दिन की मौत? और फिर अगले दिन आकर देखने का मौका भी, कि देखो मैं सोचता था कि शायद इसे, इसे और इसे फर्क पड़ेगा मगर यहाँ तो किसी को इतना भी फुर्सत नहीं की एक घंटा भी शोक मना सके.. और फिर एक गहरा अवसाद, हमेशा की मौत मरने की इच्छा.. तो क्यों सिर्फ एक दिन, एक पल के लिए ही मरा जाए? एक ही झटके में पूरी मौत ही क्यों ना? रोज-रोज तिल-तिल कर मरने से तो अच्छा ही होगा ना!

मरने के बाद क्या-लय होगा? दफ्तर में एक मेल सर्कुलेट कर दिया जायेगा, जिसमें तारीफ़ के हर वह शब्द होंगे जिन्हें आप जीते जी पढ़ने के इच्छुक रहते हैं, मगर कम ही लोगों के साथ ऐसा हो पाता है.. "**** was a hard worker who always looking towards his goal" जैसी बातें रहेंगी..

हाँ उस दोस्त को बेबात परेशानी जरूर हो जायेगी जो साथ रहता है.. पता नहीं कितना मानसिक कष्ट होगा उसे पर शारीरिक कष्ट तो निश्चित रूप से तय है.. घर पर खबर पहुंचाना, किसी के मौत कि खबर कैसे पहुंचाई जाती है यह भी शायद उसे पता ना हो.. इधर पुलिस का चक्कर अलग से झेलना.. उफ्फ़.. चैन से तो मरा भी नहीं जा सकता है.. बेहतर है किसी ऐसे जगह जाकर मरा जाए जहाँ मेरी लाश को लावारिस घोषित करके ठिकाने लगा दिया जाए.. किसी को कोई परेशानी नहीं, कोई गम नहीं..