November 19, 2010

लाजवाब!!!!!!

खूबसूरती साधारण से कुछ अधिक मगर हुश्न-ए-मलिका से कुछ कम, मगर मैं उस वक्त उसी हुश्न के सामने पनाह मांग रहा था. जो मैंने देखा उसका इकबालिया बयान कुछ यूँ रहा :

"जुल्फ़ों से झांकता नूरानी चेहरा. जुल्फ़ भी ऐसी निराली के "आफरीन-आफरीन" वाला कलाम याद हो आये, "जुल्फ़ जैसे के उमड़ी हुई हो घटा, जुल्फ़ जैसे के हो कोई काली बला, जुल्फ़ बिखरे ओ दुनिया परेशां हो, जुल्फ़ सुलझे तो ये जीत आसां हो" जैसा ही कुछ. कमर तक बिखरी हुई जुल्फ़, सिर्फ माथे के पास ही बंधी हुई जुल्फ़, गालों को चूमती हुई जुल्फ़, कयामत सी जुल्फ़. गालों पर एक तिल देखकर एक शायरी याद आती है, मगर बोल नहीं पाता हूँ.
"अब समझा तेरे रुखसार पे तिल का मतलब,
दौलत-ए-हुश्न पे दरबान बिठा रखा है."
बोलती सी आँखों पर काजल कि हलकी सी लकीर.

कॉफी का न्योता देने पर पहले मना करना फिर साथ चलना इस इरादे से ताकि कुछ बातें हो जाए और मैं कॉफी भी पी लूं. मुझसे वो कही के आप पहले जाओ, मैं पीछे से आती हूँ. मनोविज्ञान सिर्फ इतना ही समझ में आया के उसके यार दोस्त कुछ तब्सिरा करते रहें हों शायद मुझे लेकर, शायद मैं गलत नहीं हूँ.

कॉफी पीते-पीते अचानक से मैं बोल उठा "बहुत अच्छी लग रही हो!" सुनकर खिलखिला उठी और बोली "कभी-कभी शायद अच्छी लग जाती हूँ" मेरे जबान से यकायक निकल गया "अच्छी तो हमेशा ही लगती हो, कभी-कभी मैं तारीफ़ कर जाता हूँ."
और वो लाजवाब!!!!!! :-)

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